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छठ पूजा (Chhath Puja)

Chhath Puja

छठ पूजा का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। यह खास तौर पर बिहार-झारखंड के क्षेत्रों में मनाया जाता है, हालांकि अब इसकी महत्ता को देखकर सम्पूर्ण विश्व भर में छठी माता का व्रत किया जाने लगा है। छठ पूजा में माता छठी देवी की यानी भगवान सूर्य के देवी स्वरूप की पूजा आराधना की जाती है। माना जाता है छठी देवी से जो भी मन्नतें मांगी जाती है, वह अवश्य ही पूरी होती हैं। इनके दर से किसी की भी झोली खाली नहीं जाती। कठिन से कठिन संकट एवं विपदा की विपरीत घड़ी में भी माता छठी का व्रत एवं उनका आशीष कार्य करता है।

छठी माता की पूजा विशेष तौर पर पुत्र प्राप्ति एवं किसी के दीर्घायु व स्वास्थ्य संवर्धन हेतु किया जाता है। यह अत्यंत ही कठिन एवं शुद्धता व श्रद्धा भाव के साथ किया जाने वाला त्यौहार है। इसके पीछे अनेकानेक मान्यताएं हैं। तो आइए जानते हैं छठी छठ पूजा के पीछे के पौराणिक तथ्यों को, साथ ही इस वर्ष छठ पूजा हेतु शुभ मुहूर्त, तिथि एवं विधि विधान।

छठ पर्व की मान्यताएँ

छठ पर्व के पीछे हिंदू धर्म में अनेकानेक कथाएं प्रचलित हैं आइए जानते हैं उनमें से कुछ खास को।

पहली मान्यता

धार्मिक ग्रंथों में निहित कथाओं में से एक के अनुसार यह मान्यता है कि आदिकाल में एक प्रियवर नाम का राजा राज करता था जिसकी कोई संतान नहीं थी। इसकी वजह से वो अपने एवं अपने राज्य को लेकर सदैव चिंतित रहा करता था। अपनी चिंता को दूर करने हेतु वो ऋषि कश्यप के सानिध्य की शरण में गया। अनेकानेक ऋषियों के पास भटकने के पश्चात उन्हें महर्षि कश्यप का सानिध्य प्राप्त हुआ जिस पर उन्होंने राजन को आश्वासन दिया और एक विशाल यज्ञ करवाया जिसमें यज्ञ हेतु विशेष प्रकार की खीर बनवाई गई जिसे राजन की पत्नी मालिनी द्वारा आहुति के रूप में यज्ञ भगवान को समर्पित किया गया।

तत्पश्चात देवी मालिनी को पुत्र रत्न की  प्राप्ति हुई किंतु दुर्भाग्यवश वह पुत्र मृत पैदा हुआ जिससे राजन के पुत्र प्राप्ति की लालसा पर पानी फिर गया और बो खूब विलाप करने लगे। उन्होंने तय किया कि श्मशान घाट पर अपने पुत्र के दाह-संस्कार के साथ स्वयं भी आत्महत्या कर लेगा। पर जब वो आत्महत्या हेतु चेष्टा करने लगा तभी ईश्वर की मानस पुत्री देवसेना का प्राकट्य हुआ। देवसेना ने राजन से कहा- "हे राजन तुम पुत्र प्राप्ति हेतु अपने प्राण ना त्यागो। मैं सृष्टि के मूल प्रवृत्ति के छठे अंश के रूप में उत्पन्न हुई हूँ, इस कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। अगर तुम कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मेरी आराधना कर मुझे प्रसन्न करोगे, तो तुम्हें पुत्र रत्न की अवश्य ही प्राप्ति होगी।" इतना कहकर देवी मानस पुत्री विलीन हो गई।

तब राजन ने श्रद्धा भाव से पुत्र प्राप्ति हेतु कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को पूरे विधि-विधान से पूजन कर्म किया एवं उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तब से यह पर्व आत्म इच्छा पूर्ति एवं संतान प्राप्ति हेतु विशेष तौर पर प्रचलित है।

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दूसरी मान्यता

इसके पीछे एक मान्यता यह भी है कि त्रेता काल में जब भगवान श्री राम लंका पर विजय प्राप्ति के बाद अयोध्या लौटते हैं तो उन्होंने राम राज्य की स्थापना कर राज्याभिषेक पश्चात माता सीता के साथ कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को उपवास कर भगवान सूर्य की आराधना की थी। तत्पश्चात उन्होंने सप्तमी तिथि को सूर्योदय पर सूर्य की पूजा आराधना कर अपने व्रत का त्याग किया एवं भगवान सूर्य का आशीष प्राप्त किया जिसके तत्काल बाद ही उन्हें माता सीता के गर्भवती होने की सूचना प्राप्त हुई। इस कारण भी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को हर वर्ष छठ पर्व के रूप में मनाया जाता है।

छठ से सम्बंधित एक और मान्यता

छठ पर्व के संबंध में महाभारत काल से जुड़ी अनेक अनेक कथाएं प्रचलित है। कुछ ग्रंथों के अनुसार यह माना जाता है कि द्रौपदी ने पांडवों के राजपाट की वापसी हेतु छठ व्रत रखा था, तो वहीं कुछ मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि देवी कुंती ने अपने विवाह के पूर्व ही कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक बार व्रत कर्म किया था जिसके पश्चात उन्हें भगवान सूर्य की आकाशवाणी की ध्वनि सुनाई देती है जिसमें उन्होंने वरदान मांगने हेतु माता कुंती से आग्रह किया जिस पर कुंती को भरोसा नहीं था। अतः उन्होंने भगवान को आजमाने हेतु पुत्र रत्न की मांग कर दी जिस पर तत्काल ही भगवान सूर्य ने उन्हें पुत्र के रूप में कर्ण को प्रदान किया। विवाह के पूर्व ही पुत्र रत्न की प्राप्ति से माता कुंती घबरा जाती हैं जिस वजह से उन्होंने अपने पुत्र को वन में छोड़ दिया। इस राज को माता कुंती ने भगवान श्री कृष्ण की मदद से  महाभारत की शुरुआत के पूर्व सभी के समक्ष प्रस्तुत किया, तब भगवान श्री कृष्ण कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को व्रत रखने के महत्व को समझते हैं एवं उस दिन से यह प्रथा छठ व्रत के रूप में आरंभ हो जाती है।

छठ पूजा 2020 शुभ मुहूर्त

किसी भी पर्व त्यौहार में शुभ मुहूर्त विशेष महत्व रखता है। शुभ मुहूर्त में किया गया कर्म हमेशा ही फलदाई होता है, साथ ही इसमें विधि-विधान की पूर्णता एवं उसे पूर्ण करने  हेतु व्यक्ति की आंतरिक निष्ठा काफी महत्व रखती है। इस वर्ष छठ पूजा 20 नवंबर को मनाई जाने वाली है। तो आइए जानते हैं छठ पूजा हेतु इस वर्ष 2020 में क्या है शुभ मुहूर्त -

छठ पूजा के दिन सूर्योदय: प्रातः 06 बजकर 48 मिनट पर।

छठ पूजा के दिन सूर्यास्त: शाम 05 बजकर 26 मिनट पर।

षष्ठी तिथि का आरंभ: 19 नवंबर 2020, रात्रि 09 बजकर 59 मिनट से,

षष्ठी तिथि समाप्ति: 20 नवंबर 2020, रात्रि 09 बजकर 29 मिनट पर

पूजा विधि

छठ पूजा श्रेष्ठ एवं पवित्र त्योहारों में से एक मानी जाती है जिसके विधि-विधान अत्यंत ही कठिन होते हैं और जिसे सामान्य तौर पर कर पाना संभव नहीं होता। इस पूजा में विधि-विधान एवं नियमों का विशेष महत्व होता है जिसमें चूक होने पर छठी माता का प्रकोप भी झेलना पड़ सकता है। यह लगातार 4 दिनों तक चलने वाला पर्व है जिसके लिए लोग महीनों पूर्व से तैयारी आरंभ कर देते हैं। तो आइए जानते हैं इस विशेष पर्व के महत्व को एवं पूजन विधि व प्रक्रिया को-

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प्रथम दिन-

छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को ही हो जाती है। आज के विधि-विधान को नहाई-खाई के नाम से जाना जाता है। इस दिन व्रत धारी पवित्र नदी अथवा घर पर ही नहाने के जल में गंगाजल मिलाकर पवित्र भाव से स्नान करते हैं एवं नए वस्त्र को धारण करते हैं। आज के दिन से इनके भोजन व खानपान में परिवर्तन होना आरंभ हो जाता है। नहाई-खाई के दिन व्रत धारी घर में सबसे पहले भोजन करते हैं। इनके भोजन में लौकी की सब्जी और कुछ साग-पत्तियां आदि निहित होती है। इसे प्रसाद के रूप में व्रतधारी पहले ग्रहण करते हैं और इसके बाद घर फिर के सभी लोग भोजन ग्रहण करते हैं।

दूसरा दिन-

छठ पूजा के दूसरे दिन अर्थात कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि का विशेष महत्व होता है। आज से छठ पूजा में व्रत-उपवास का आरंभ होता है। आज के दिन से उपासक व्रत रखना आरंभ करते हैं। इस दिन को खरना के नाम से जाना जाता है। खरना के दिन पूरे दिन भर उपवास रखना होता है। वे आज शाम को ही अन्न जल ग्रहण कर पाते हैं। आज की शाम को व्रती नई फसल से बने चावल एवं गुढ़ आदि से शुद्धता पूर्वक बनाये गए खीर को शुद्ध आटे से बनी रोटी के साथ ग्रहण करते है। संध्याकालीन वेला में व्रती अकेले घर के बंद कमरे में बैठकर खाते हैं एवं अन्य का एक दाना भी बर्बाद नहीं होने देते हैं। व्रत धारी के भोजन करने के पश्चात घर के बाकी सदस्य एवं अन्य लोग इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इस दिन चावल का पिट्ठा, घी लगी रोटी आदि के प्रसाद के रूप में भोग लगने का विधान है।

षष्ठी व्रत का दिन

आज के दिन सुबह-सुबह पूरे घर की साफ सफाई एवं निपाई कर प्रसाद बनाने की तैयारी की जाती है जिसमें गेहूं के आटे एवं गुड़ से ठेकुआ बनाया जाता है जिस का विशेष महत्व होता है। इस पर्व में सभी प्रकार के मौसमी फल आदि को टोकरी, सूप आदि में श्रद्धा भाव से सजाते हैं। छठ व्रत में चावल के बने लड्डू, भिगोए हुए चने, मूंग, किशमिश, छुहारे आदि भी चढ़ाए जाते हैं। साथ ही टोकरी में कुछ सब्जियां जैसे मूली, बैंगन, मेहंदी के पत्ते आदि भी चढ़ाए जाते हैं। दिन भर व्रत हेतु प्रसाद बनाने एवं टोकरियों को सजाने का काम किया जाता है एवं संध्या काल में सूर्यास्त से पूर्व किसी पवित्र नदी तालाब में जाकर व्रत धारी भगवान सूर्य के सामने जल में खड़े होकर फलों से सजी टोकरियों का अर्पण करते हैं जिसके बाद व्रत धारी एवं अन्य परिवार के लोग रिश्तेदार आदि भगवान सूर्य को अर्घ्य प्रदान करते हैं। इस दिन रात्रि जागरण का विशेष महत्व है। माना जाता है कि षष्ठी के दिन घाट पर रात्रि जागरण करना एवं सुबह की पहली किरण के साथ पूजन करना कई गुना अधिक फलदाई होता है।

चौथा दिन

चौथे दिन सप्तमी तिथि को व्रत धारी सुबह ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके नये वस्त्र धारण करते हैं और फिर वे शीत के ठंडे जल मे पैर रखकर खड़े होते हैं एवं भगवान सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं। तत्पश्चात सूर्योदय होते ही सभी लोग एवं छठ व्रती भगवान सूर्य को अर्घ्य दान करते हैं जिसके बाद इस व्रत का समापन होता है। व्रत के समापन होते ही सभी गरीब एवं लाचार लोगों के बीच भोजन बांटा जाता है। छठ पूजा के प्रसाद को अधिक से अधिक लोगों में बांटा जाता है। तत्पश्चात छठव्रती अपने इष्ट देव की घर में पूजा-आराधना कर छठ पूजा के प्रसाद से अपना व्रत खोलते हैं।