हिंदू धर्म में अनेकानेक प्रकार के पर्व त्योहार के साथ-साथ व्रत आदि भी रखे जाते हैं। इसके अतिरिक्त हिंदू धर्म के पंचांग में हर 15 दिन पर एक पक्ष का भी निर्धारण किया गया है जिसके मुताबिक प्रत्येक मास में दो पक्ष पड़ते हैं। इनमें से एक को कृष्ण पक्ष तो दूसरे को शुक्ल पक्ष के नाम से संबोधित किया जाता है। इसी मध्य अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को शरद पूर्णिमा पड़ने जा रही है।
शरद पूर्णिमा का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। शरद पूर्णिमा को अन्य कई नामों से भी जाना जाता है। शरद पूर्णिमा को कई स्थानों पर कौमुदी व्रत, कोजागिरी पूर्णिमा व रास पूर्णिमा आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है। शरद पूर्णिमा का संबंध द्वापर युग से है। ऐसा माना जाता है कि द्वापर युग में शरद पूर्णिमा की तिथि को भगवान श्री कृष्ण ने महारास रचा था।
इस वर्ष शरद पूर्णिमा अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की तिथि 30 अक्टूबर 2020 को यानी शुक्रवार के दिन पड़ने जा रही है। शरद पूर्णिमा के संबंध में यह प्रचलित है कि इस दिन आकाश से चंद्रमा की किरणों के माध्यम से अमृत की वर्षा होती है। जब संध्या कालीन बेला में चंद्रोदय होता है, तत्पश्चात लोग चांद देखते हैं और अनुभव करते हैं कि इस रात्रि चंद्रमा की किरणों के माध्यम से अमृत की वर्षा हो रही है।
पूर्णिमा तिथि आरम्भ:- 30 अक्टूबर 2020, शाम 05 बजकर 48 मिनट पर
पूर्णिमा तिथि समाप्ति:- 31 अक्टूबर 2020, रात्रि 08 बजकर 18 मिनट पर
इसी वजह से उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में लोग शरद पूर्णिमा की रात्रि में खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी तले खीर बनाकर रखते हैं और सुबह से शरद पूर्णिमा की अमृत वर्षा का प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं। शरद पूर्णिमा पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है, साथ ही शरद पूर्णिमा पर्व के पीछे एक महत्वपूर्ण व रोचक कथा है। आइए जानते हैं शरद पूर्णिमा पर्व से जुड़ी रोचक कथा के बारे में, तत्पश्चात शरद पूर्णिमा के पर्व पर पूजन विधि।
वैसे तो शरद पूर्णिमा के महत्व व तत्वों के संबंध में अनेकानेक प्रकार की कथाएं प्रचलित है किंतु आज हम आपको शरद पूर्णिमा के व्रत को अधूरा करने से उत्पन्न होने वाली समस्याओं व पीड़ा के संबंध में बताते हुए शरद पूर्णिमा पर्व के जीवन में महत्व को भी बताएंगे।
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार था जिसका नाम प्रचलित बहुत था। साहूकार की दो पुत्रियां थी जिसमें बड़ी पुत्री अत्यंत ही गुणी संस्कारी और पूजा-पाठ व्रत आदि करने वाली थी। बड़ी पुत्री को देखकर उसके पिता अपनी छोटी पुत्री को भी व्रत उपवास आदी करने हेतु हमेशा प्रेरित करते रहते थे किंतु छोटी पुत्री का मन पूजा-पाठ आदि जैसे क्रियाकलाप में बिल्कुल नहीं लगता था। पिता के अधिक दबाव डालने की वजह से वो व्रत तो कर लेती थी, किंतु उसको अक्सर ही अधूरा छोड़ दिया करती थी।
ऐसे ही शरद पूर्णिमा की पर्व पर भी साहूकार की छोटी बेटी ने पूर्णिमा के व्रत को आधा अधूरा छोड़ दिया और निश्चिंत रहने लगी। कुछ वर्षों के पश्चात दोनों पुत्रियों का विवाह अच्छे घराने में करा दिया गया जिसमें बड़ी पुत्री का जीवन तो अत्यंत ही खुशहाल व सुखमय व्यतीत होने लगा, जबकि छोटी पुत्री के जीवन में आए दिन कोई न कोई कलह-क्लेश संकट आदि बना रहता था। फिर भी छोटी पुत्री का गुजारा चल रहा था। कुछ वर्षों के पश्चात दोनों पुत्रियों को संतान रत्न की प्राप्ति हुई किंतु छोटी पुत्री के संतान जन्म लेते के साथ ही मृत्यु के गाल में समा जाते थे। यही प्रक्रिया कई बार छोटी पुत्री के साथ होने लगी।
तत्पश्चात छोटी पुत्री ने एक ज्ञानी पंडित से इसकी संबंध में जानकारी प्राप्त की तो उस पंडित ने साहूकार की छोटी पुत्री से कहा कि विवाह के पूर्व तुमने शरद पूर्णिमा के व्रत को आधा अधूरा छोड़ कर उसका अपमान किया था जिसका परिणाम तुम आज तक भुगत रही हो। अतः इसके निवारण हेतु तुम्हें विधि विधान से शरद पूर्णिमा की व्रत को अपनाते हुए हर वर्ष व्रत को पूर्ण करना चाहिए।
तत्पश्चात साहूकार की छोटी बेटी ने दुखी होकर अपनी बड़ी बहन के निष्ठा पूर्वक व्रत करने और स्वयं का व्रत के प्रति निरंकुश रवैया के बारे में बताया तो पंडित ने छोटी पुत्री को यह सलाह दी कि वह अपनी बड़ी बहन से अपनी संतान को स्पर्श करने हेतु कहे। इससे उसकी मृत संतान जीवित हो सकती हैं। साहूकार की छोटी पुत्री ने अपनी बड़ी बहन को बुलाया और अपने संतान को स्पर्श हेतु आग्रह किया, साहूकार की बड़ी बेटी के संतान को स्पर्श करते ही संतान रोने लगी और उसमें प्राण वापस आ गए। तब से साहूकार की दोनों पुत्रियों ने और भी अधिक निष्ठा पूर्वक व्रत को विधि विधान से अपनाते हुए हर वर्ष रखना आरंभ कर दिया एवं व्रत के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा दर्शाते हुए व्रत का समापन भी करती रही।
इन व्रत-त्यौहार के विषय में भी जानें: