जिस प्रकार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी व भगवान विष्णु को सृष्टि का पालनकर्ता माना जाता है, उसी प्रकार त्रिकालदर्शी त्रिपुंड धारी, रुद्राक्ष, वासुकी, चंद्र, गंगा, भस्म आदि को धारण करने वाले देवधीदेव महादेव को दुष्टों का संहार कर्ता माना जाता है। आज इस लेख के माध्यम से हम जानेंगे भगवान् भोले शंकर से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रतीक चिन्हों के विषय में। तो देर किस बात की है, आइए जानते हैं।
चंद्र
एक बार दक्ष प्रजापति ने अपनी कन्याओं के कहे अनुसार चंद्र को क्षय रोग से ग्रसित होने का श्राप दे दिया था। तब भगवान शिव ने उन्हें श्राप से मुक्त कर पुनर्जीवित किया व उन्हें अपने मस्तक पर स्थापित किया जिससे चंद्र मृत्यु के द्वार पर खड़े होकर भी ईश्वर की कृपा से वापस लौट आये। शिव ने चंद्रमा को धारण किया है, इसलिए उन्हें सोम नाम से भी जानते हैं। चंद्रमा को मानव के चंचल मन का कारक माना जाता है, इसलिए शिव के मस्तक पर चंद्रमा मन की एकाग्रता व विशालता का प्रतीक है।
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त्रिशूल
सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जन्मे शिव शंकर के साथ साथ-जीवन जीने के तीन गुणों ने भी जन्म लिया - सत, रज और तम इन तीनों के मध्य समांतरता बनाए रखने हेतु शिव जी ने इन तीन शूल के रूप त्रिशूल को अपने हाथ में धारण किया है। त्रिशूल को अन्य कई प्रतीकों में तुलनात्मक रूप से देखा गया है। तीन काल (भूत, भविष्य व वर्तमान), तीन अवस्थाएं (बचपन, जवानी और बुढ़ापा), तीन देव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) आदि। यह मान्यता है कि कोई भी शक्ति आकाश, पाताल व इस धरा पर नहीं है जो भगवान् शिव के त्रिशूल का सामना कर सके।
वासुकी नाग
पुरातन काल में समुद्र मंथन के दौरान मन्दराँचल पर्वत ने मथनी के रूप में व वासुकि नाग ने रस्सी के रूप में अपना अमूल्य योगदान दिया था। वह भगवान शिव शंकर के अनंत भक्त थे। उन्हें ज्ञात था कि आने वाले समय में नागों का अंत होगा, इसलिए वे स्वयं भगवान को प्रसन्न कर उनकी शरण में चले गए और शिव जी ने उन्हें अपने कण्ठ पर धारण कर लिया। इससे शिव के साथ नागकुल भी सर्व व्यापी हो गया और जगह-जगह शिव के स्वरूप में इनका भी पूजन किया जाने लगा।
डमरू
सृष्टि के आरंभ में यह मान्यता है कि सरस्वती जी ने अपनी वीणा से ध्वनि का निर्माण किया, किंतु भगवान शिव अपने हाथ में डमरू लेकर ही अवतरित हुए थे। उन्होंने इस डमरु से संगीत का निर्माण किया व शिव तांडव नृत्य कर विभिन्न कलाओं की संरचना की। कहते हैं कि इस डमरु की ध्वनि से आसपास के नकारात्मक प्रभाव में सकारात्मकता का संचार होता है, अटके कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है और कई बीमारियों का इलाज अपने आप ही हो जाता है। इसलिए यह एक पवित्र नाद का प्रतीक है।
वृषभ
पुरातन काल में नंदी शिव जी के अनंत भक्त थे किंतु वह अल्पायु होने के कारण चिंतित रह्ते थे। उन्होने अपनी समस्या का समाधान करने हेतु भगवान शिव की आराधना की जिससे उन्होने भगवन शिव को प्रसन्न किया। इसके पश्चात भगवान शिव ने उन्हें बैल यानी वृषभ का मुख प्रदान कर, अपनी सवारी रूप में हमेशा साथ रहने का वरदान दिया। इसलिए नंदी को धर्म का प्रतीक माना गया है। नंदी के चार पैरों को चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि) का प्रतीक माना जाता है।
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जटायेँ
ब्रह्माजी इस सृष्टि के रचयिता व विष्णु जी इस सृष्टि के पालनकर्ता है। इसी प्रकार भगवान शिव सृष्टि के संहारकर्ता है। इनके शीश पर लंबी जटाओं को संपूर्ण अंतरिक्ष के समान माना जाता है। कहते हैं कि आकाशगंगा उनकी जटास्वरूप है।
गंगा
भगीरथ के कठोर तप से माँ गंगा ने उन्हें प्रसन्न होकर इस धरा पर अवतरित होने का वरदान दिया। वह जानती थी कि इस धरा पर उनके वेग को कोई भी सहन नहीं कर सकता, किंतु भागीरथ ने उनको इस धरा पर लाने हेतु, भगवान शिव की कठोर आराधना की। उनसे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने माँ गंगा के प्रवाह को अपनी जटाओं में धारण कर, एक छोटे से पोखर में छोड़ दिया जहाँ से माँ गंगा अपने 7 विस्तृत रूपों में प्रवाहित होती हैं।
भस्म
भगवान शिव को धारण कर संपूर्ण सृष्टि को यह संदेश देते हैं कि हम इतने ही सुंदर कोमल कठोर तपस्वी क्यों ना हो, हमारा शरीर नश्वर है। हम इस मिट्टी से ही जन्मे थे, मिट्टी में ही जलकर भस्म हो जाएंगे, इसलिए इस शरीर पर हमें कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए। भगवान शिव को इस सृष्टि का संहारकर्ता और अमृत्व का स्वामी माना जाता है, इसलिए अपने शरीर पर भस्म धारण कर जगत को सभी मोह-माया और ईर्ष्या से दूर रहने का संदेश देते हैं।
तीन नेत्र
भगवान शिव के त्रिनेत्रों के बारे में यह कहा जाता है कि जब इस धरा पर कुकर्म और पापियों का घड़ा भर जाता है, इस धरा पर धर्म पर जब अधर्म हावी हो जाता है, तब भगवान शिव क्रोधित होकर, अपनी तीसरी आंख को खोलते हैं जिससे इस दृष्टि पर विराजमान कुकर्मी, पापी व दुष्टों का अंत करते हैं। कहते हैं भगवान के तीन नेत्रों की सहायता से मानव जीवन के तीन काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) को जान सकते हैं, इसलिए भी इन्हें त्रिकालदर्शी कहा जाता है।
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शिव चक्र
यह मान्यता है कि चक्र सभी देवताओं का प्रियतम शस्त्र होता है। यह देखने में लघुतम होता है पर इसका प्रभाव इसके आकार के विपरीत अति प्रभावशाली होता है। सभी देवताओं के पास भिन्न-भिन्न चक्र होते हैं, जैसे भगवान विष्णु जी के पास सुदर्शन चक्र है, उसी प्रकार भगवान शिव के पास शिव चक्र है जिसको हम भवरेंदू नाम से जानते है।
त्रिपुंड तिलक
अपने माथे पर सफेद चंदन व भस्म से तीन रेखाओं से युक्त तिलक मस्तक पर धारण करते हैं। इसे जीवन के तीन गुणों सत ,रज, तम आदि का प्रतीक माना गया है। कहते हैं कि इसको धारण करने से मानसिक विचारों में वृद्धि होती है व सेहत में भी अनेक चमत्कारिक लाभ होते हैं, तथा यह रेखायें हमारे जीवन के तीनों काल भूत, भविष्य, वर्तमान आदि का भी प्रतीक मानी जाती है।
रुद्राक्ष
रुद्राक्ष की उत्पत्ति रूद्र व अक्ष शब्द के मेल से हुई है। रूद्र अर्थात भगवान शिव, अक्ष अर्थात आंसू। अतः भगवान शिव के आंख से निकले आंसू से रुद्राक्ष की उत्पत्ति मानी जाती है। एक बार भगवान शिव ध्यान मग्न होकर कठोर तपस्या कर रहे थे, किंतु किसी कारण वश उनके ध्यान में बाधा उत्पन्न हुई जिससे उनका मन दुखी हो गया। इस कारण उनके आंखों से कुछ मोती रूप आंसू बहे जो धरा पर रुद्राक्ष के पेड़ रूप में उत्पन्न हुए, जिसको धारण करने से मानव को ऊर्जा प्राप्त होती है।