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श्रीकृष्ण क्यों कहते थे कर्ण को महान दानवीर?

Karna Ko Kyon Kaha Jaata Tha Daanveer?

भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक व आधारभूत हिंदू धर्म में अनेकों महा ग्रंथ की रचना की गई। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण ,महाभारत आदि की रचना महर्षिओं ने भारतीय संस्कृति को संजोए रखने व आने वाली पीढ़ी दर पीढ़ी को अपनी संस्कृति को जानने व जोड़े रखने हेतु इनकी रचना की। वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत, वाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण हिंदू धर्म के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ है। जन-जन में प्रभु श्री राम की गाथा व अर्जुन श्री कृष्ण की लीला बहुत प्रसिद्ध है। साधारण मनुष्य अपने जीवन में इन रचनाओं का अनुसरण कर अपने जीवन को सफलतापूर्वक उत्कृष्ट बना सकते हैं।

महाभारत कथा में विश्व का सर्वप्रथम विशाल युद्ध हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि महाभारत जैसा युद्ध ना ही कभी हुआ है और ना ही कभी होगा। इस युद्ध में एक ओर अधर्म की चादर ओढ़ कौरव व दूसरी ओर धर्म की मूरत पांडवों के मध्य हुए विशाल युद्ध का वर्णन किया गया है जिसमें धर्म का रसपान करने वाले पांडवों ने युद्ध पर, श्री कृष्ण रूप धारी विष्णु जी की सहायता से विजय पाकर, इस धरा पर अधर्म का नाश किया। महाभारत में अनेक शास्त्र विद्या का वर्णन किया गया है। कामशास्त्र, शिल्पशास्त्र, खगोल विद्या आदि का विस्तार से इस ग्रंथ में उल्लेख है।

भारत की प्राचीन उत्कृष्टता व प्रबलता का अनुमान हम इसके माध्यम से लगा सकते हैं। इसमें कहा गया है कि:

जो इस धरा पर मौजूद है, वह इस संसार में कहीं ना कहीं अवश्य मिल जाएगा। किन्तु जो यहां नहीं है, वह संसार में आपको अन्य किसी जगह नहीं मिलेगा।

इस विशाल महानतम ग्रंथ में कितने ही पात्र कैद हैं जो हमें निरंतर प्रेरणा देते हैं। हर पात्र स्वयं में एक उदाहरण हैं। युधिष्ठिर से धर्म परायणता, भीष्म पितामह से कर्तव्य परायणता, देवी कुंती व गांधारी से देश निष्ठा आदि अनेक पात्र हमें अपने चरित्र से प्रभावित कर शिक्षा प्रदान करते हैं। वे सभी अनेक रूपों में जन-जन तक विख्यात व प्रेरणा स्रोत हैं।

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क्यों कहते हैं कर्ण को सूर्यपुत्र?

कर्ण का जन्म कुंती को मिले एक वरदान स्वरूप हुआ था। जब वह कुंवारी थी, तब महर्षि दुर्वासा ने उनकी सेवा भाव से प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से यह स्मरण किया कि भविष्य में कुंती के पति पांडु की कोई संतान नहीं हो सकती है। उसके उपरांत उन्होंने देवी कुंती को यह वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण कर उनसे संतान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन कुंवारे पन में ही देवी कुंती ने सूर्य देव की आराधना व स्मरण किया। तत्पश्चात सूर्य देव वहां प्रकट हुए और उन्हें एक पुत्र दिया जो तेज में सूर्य के समान व कवच और कुंडल लेकर उत्पन्न हुआ था। क्योंकि वह अविवाहित थी, इसलिए लोक लाज के डर या पुत्र का अभाग्य था, देवी कुंती ने उस पुत्र को एक टोकरी में रखकर गंगा जी में प्रवाहित कर दिया। इसी प्रकार कर्ण, सूर्य के पुत्र रूप में इस धरा पर अवतरित हुए थे, इसलिए उनका नाम सूर्यपुत्र कर्ण हुआ। किंतु बचपन से ही कर्ण के जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों का अमूल्य साथ रहा।

अपनी मां के एक छोटे से बचपने के कारण, उन्हें अपना जीवन, एक सूत पुत्र के दाग के साथ व्यतीत करना पड़ा क्योंकि उन्हें उस बहती हुई गंगा की धारा से निकालकर महाराजा भीष्म के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने ले जाकर उनका पालन पोषण किया, जिसके चलते अधिरथ की पत्नी राधा के नाम पर कर्ण का नामकरण 'राधेय' हुआ।

कर्ण को महान दानवीर क्यों कहते थे?

इन सब के मध्य एक ऐसा किरदार जो अपनी दनवीरता, प्रबलता, सूझ-बूझ , विनम्रता, साहस आदि के लिए जन में लोकप्रिय है, महाभारत के युद्ध में एकमात्र ऐसा किरदार जो क्षत्रिय होकर भी, सूत पुत्र का दाग लेकर, अपने जीवन यापन किया और युद्ध में अपनी मुख्य भूमिका भी निभाई।

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प्रथम घटना के अनुसार

जब कर्ण को यह ज्ञात हुआ कि माँ कुंती उनकी जन्मदायनी है और कुंती को भी इसका ज्ञान हुआ कि अंगराज कर्ण ही उनके सर्वप्रथम पुत्र हैं, तब माँ कुंती युद्ध से पूर्व दानवीर कर्ण से मिलने पहुंची। उनकी व्याकुलता को देखकर दानवीर कर्ण ने माँ कुंती को यह वचन दिया कि उनके पांच पुत्रों की संख्या में कमी नहीं होगी अर्थात मैं अर्जुन के अतिरिक्त, युद्ध में किसी पर भी वार नहीं करूंगा। अतः यह प्रतिज्ञा ली कि युद्ध के पश्चात या तो मैं जीवित रहूंगा या फिर गांडीव धारी अर्जुन। उन्होंने प्रतिज्ञा का पालन कर अर्जुन के अतिरिक्त किसी पर भी प्रहार नहीं किया।

दूसरी घटना के अनुसार

कहा जाता है कि अंगराज का महाराजा बनने के उपरांत महावीर कर्ण ने यह प्रतिज्ञा की कि सूर्य देव की पूजा के उपरांत मुझसे कोई भी व्यक्ति अगर कुछ भी मांगेगा, तो वह खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इस दानवीरता व प्रतिज्ञा का लाभ देवराज इंद्र ने उठाया। युद्ध के पूर्व सूर्यदेव की आराधना के उपरांत साधारण भिक्षु का रूप धारण कर देवराज इन्द्र उनके समक्ष उपस्थित हुए और अपने पुत्र गांडीवधारी अर्जुन की रक्षा हेतु अंगराज कर्ण से उनके कुंडल एवं कवच मांग लिए, क्योंकि वे जानते थे कि कवच और कुंडल के रहते सूर्यपुत्र कर्ण को मारना असंभव था। इसलिए उन्होंने उनकी प्रतिज्ञा का लाभ उठाया, किन्तु कर्ण ने भी अपनी दानवीरता का परिचय देते हुए निसंकोच साधु को कवच व कुंडल दान दे दिए।

तीसरी घटना के अनुसार

कहा जाता है कि एक बार कृष्ण ने कर्ण की दानवीरता की सराहना करते हुए प्रशंसा की। उस बात को सुनकर सभी पांडव सोच में पड़ गए और माधव से प्रश्न पूछने लगे कि ऐसा क्यों माधव। आप हमें सिद्ध करें वह विश्व का सबसे बड़ा दानवीर क्यों है। इस पर श्री कृष्ण कहते हैं कि समय रहते आपको इसका ज्ञात होगा।

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एक दिन एक ब्राह्मण युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित हुआ और आग्रह किया कि मुझे चंदन की लकड़ी की यज्ञ के लिए आवश्यक है, क्योंकि मैं बिना यज्ञ किये भोजन व भजन नहीं करता। इसलिए यदि आपके पास चंदन की लकड़ियां हो तो मुझे दे दीजिए, अन्यथा मेरा हवन न हो साकेगा जिस कारण मैं भूख से मर जाऊंगा।

युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार से लकड़ी लाने को कहा, किंतु उस दिन कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं मिली। इससे हताश होकर वह ब्राह्मण वहाँ से जाने लगता है, तब श्री कृष्ण कहते हैं कि आपकी इस समस्या का हल सिर्फ दानवीर कर्ण ही कर सकते हैं।

यह जान ब्राह्मण कर्ण के द्वार की ओर चल पड़ता है। उसके पीछे-पीछे श्री कृष्ण पांडव पुत्रों को लेकर चल पड़ते हैं। किन्तु उस दिन अंगराज कर्ण के कोशागृह में भी चंदन की लकड़ी नहीं थी। यह सुन वह ब्राह्मण हतोत्साहित हो जाता है। ब्राह्मण की व्याकुलता को देख अंगराज कहते हैं कि मेरे पास एक उपाय है। इसके उपरांत अंगराज कर्ण ने अपने महल में चंदन की लकड़ी से बने खिड़की-दरवाजे की लकड़ी को काटकर ढेर लगा दिया और ब्राह्मण से कहा कि आपको जितनी लकड़ी की आवश्यकता है, आप ले जा सकते हैं। उन्हें घर ले जाने का भी उन्होंने प्रबंध किया। उनको आशीर्वाद व प्रणाम कर वह ब्राह्मण लकड़ी लेकर वहां से चला जाता है।

यह देख श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे धर्मराज युधिष्ठिर, आपके महल में भी अनेकों खिड़की-दरवाजे चंदन की लकड़ी के बने हैं किंतु आपने उनके बारे में एक बार भी नहीं सोचा और अंगराज कर्ण ने अपनी दानवीरता का परिचय देते हुए उनको एक क्षण में काटकर ब्राह्मण के समक्ष रख दिया। इसलिए अंगराज कर्ण दानवीरता के लिए विश्व में प्रसिद्ध है।

अतः अनुकूल परिस्थितियों में दान देना साधारण है, किन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर दान देना ही दानवीरता है। इसलिए महाराजा कर्ण अपनी दानवीरता के लिए विश्व विख्यात व सभी जनों के हृदय में शोभायमान हैं।

इन घटनाओं के आधार पर सूर्य पुत्र कर्ण ने अपनी प्रतिकूलता व्याप्त जीवन में भी सदैव दान का द्वार नित खुला रखा। निस्वार्थ भाव से कर्म कर महाभारत के विशाल युद्ध में श्रेष्ठ होकर भी एक सूत पुत्र रूप जीवन यापन किया।