चौरचन या चौठ चंद्र का पर्व मिथिलांचल का विशेष त्योहार माना जाता है। इसे बड़े ही विधि विधान से पावन व पवित्र भाव से किया जाता है। शास्त्रों में ऐसा विदित है कि मिथिलांचल द्वारा आरंभ हुए पर्व प्रायः प्रकृति संरक्षक होते हैं, जैसे कि छठ पूजा भी मिथिलांचल की ही आरंभ की ही पूजा है जिसमें ग्रहों के अधिष्ठाता सूर्य को देव की उपाधि मानकर, उन्हें दिनकर, दिवाकर के अलावा देवी के रूप में छठी माता के रूप में पूजा जाता है, तो वहीं चौरचन रुपी पावन पर्व में चंद्र देवता की पूजा आराधना की जाती है।
प्रायः चौरचन के पावन पर्व में घर की सबसे तजुर्बे दार यानी उम्रदराज महिलाएं अपना हाथ उठाती है। यहां हाथ उठाने का तात्पर्य है कि वे व्रत करती हैं। चोरचन का पर्व अत्यंत कठिन माना जाता है। इसमें महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं। चौरचन पर्व के पूजन हेतु तैयारियां कई दिन पहले से ही आरंभ हो जाती है। इस वर्ष चौरचन का पर्व 22 अगस्त की तिथि को पड़ रहा है। हर वर्ष यह चोरचन का त्योहार गणेश चतुर्थी के प्रथम दिवस को ही मनाया जाता है। जिस प्रकार संपूर्ण देश भर में भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश जी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है, उसी प्रकार मिथिलांचल में इसे गणेश जी के पर्व एवं चांद की आराधना से जुड़े त्यौहार के रूप में भादो मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को हर वर्ष मनाया जाता है। चोरचन के पर्व में प्रयुक्त सभी वस्तुओं को अत्यंत शुद्ध व पवित्र रखा जाता है एवं इसमें चढ़ाई जाने वाली व प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं का विशेष महत्व होता है।
तो आइए जानते हैं सर्वप्रथम चौरचन के पवित्र पर्व में उपयुक्त पूजन सामग्री-
पूजन सामग्री
चौरचन के पर्व में पूजन में उपयोग होने वाली वस्तुओं में सर्वप्रथम सभी प्रकार के मौसमी फलों को लिया जाता है। माना जाता है कि इसमें मौसमी फल व मेवा मिष्टान्न आदि के द्वारा ही व्रती महिलाएं हाथ उठाती हैं, अर्थात व्रत करती हैं। अतः इसमें सभी प्रकार के मौसमी फल ले लिए जाते हैं एवं मूंग, चना, लॉन्ग आदि के साथ साथ ड्राई फ्रूट्स भी उपयोग में लाए जाते हैं। इसके अलावा नारियल एवं मिट्टी की बनी चूड़ियां आदि प्रयोग में लाई जाती हैं। इस पर्व पर सभी महिलाएं नए वस्त्र लेती है, साथ ही नए शृंगारिक प्रसाधन भी। इसमें महिलाएं सोलह सिंगार करके तैयार होती हैं।
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चौरचन के पर्व में बांस की लकड़ी से बनी टोकरी का इस्तेमाल होता है। इस टोकरी में सभी प्रकार के फल, मिष्ठान आदि रखे जाते हैं जिसके मिष्ठान के रूप में ठेकुआ, पीरोंकिया (गुजिया), खाजा, मोतीचूर के लड्डू आदि को घर मे शुद्धता से निर्मित कर चढ़ाया जाता है। इसे बनाने हेतु सभी शुद्ध सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा चौरचन के पर्व में मिट्टी के बर्तन में 1 दिन पूर्व ही दही बनाया जाता है जिसे पूजन वाले दिन अर्थात चतुर्थी तिथि को भगवान शिव जी के समीप चढ़ाया जाता है। इसी दही को मुख्य प्रसाद के रूप में घर के पुरुषों में बांटा भी जाता है। इन सभी उपयोगी वस्तुओं के अतिरिक्त भी कई प्रकार की वस्तुओं को लोग अपनी श्रद्धा अनुसार चौरचन के पावन पर्व हेतु उपयोग में लाते हैं।
व्रत विधि
चौरचन के पावन पर्व हेतु सभी व्रत धारी महिलाएं 1 दिन पूर्व ही जाकर सुबह-सुबह किसी पवित्र नदी अथवा संभव हो तो गंगा नदी में स्नान करती हैं। उसके बाद वह भगवान शिव, पार्वती एवं गणेश जी की पूजा आराधना कर पूरे दिन फलाहार अथवा बिना नमक के भोजन ग्रहण करती हैं। इस दिन महिलाएं नहाने के पश्चात बिना भोजन किए दूसरे चढ़ाई जाने वाली दही हेतु मिट्टी के बर्तन में दूध में दही डालकर दही बनने हेतु रख देती है। अधिकांश महिलाएं इसी दिन अर्थात चतुर्थी तिथि के 1 दिन पूर्व यानी नहाए खाए वाले दिन ही चौरचन पर्व में चढ़ाए जाने वाले ठेकुआ पिरोकिया (गुजिया) आदि को विधिवत तौर तरीके से श्रद्धा पूर्वक बना लेती हैं। दूसरे दिन प्रातः काल महिलाएं स्नान कर भगवान शिव पार्वती एवं गणेश जी की पूजा आराधना कर पूरे दिन निर्जला उपवास रहती हैं एवं शाम के पूजन हेतु महिलाएं सोलह सिंगार कर तैयार होती हैं।
इस दिन महिलाएं नये-नये वस्त्र, नयी लाही (मिट्टी) की चूड़ियां आदि पहनती है। इसमें महिलाएं चांद देव के उगने के पूर्व उनके स्वागत हेतु पूरे घर-आंगन में पिथोरा, जो कि चावल के आटे को पीसकर बनाया जाता है, का छिड़काव करती है। इससे चावल के आटे के पीसे हुए गीले द्रव्य के साथ साथ, हल्दी का खोल भी तैयार किया जाता है। तत्पश्चात दोनों द्रव्य से पूरे घर में छिड़काव किया जाता है जिसके बाद चाँद के उगने पर महिलाएं अपने पति के साथ चांद के समीप जाकर उन्हें अर्घ्य प्रदान करती हैं, तत्पश्चात चांद की पूजा करती है। अर्घ्य के साथ-साथ महिलाएं बांस की लकड़ी की बनी टोकरी में एकत्रित किए गए फल, मिठाई आदि को भी चंद्रदेव को अर्पित करती हैं। फिर उनके पूजा की क्रिया संपन्न मानी जाती है। फिर भी महिलाएं अपने घर के कुल देवता के साथ साथ भगवान श्री गणेश, शिव, शंभू एवं माता पार्वती की पूजा आराधना कर घर के सभी पुरुष जनों को आंगन में अर्थात चांद की शीतल छाया तले प्रसाद ग्रहण करवाती हैं। इस पूजन की प्रक्रिया के पश्चात महिलाएं चांद की छाया तले भोजन करने आंगन में नहीं बैठती है।
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ऐसा माना जाता है कि महिलाएं इस विशिष्ट पूजन के प्रसाद हेतु अशुद्ध मानी जाती है। हालांकि छोटी बच्चियां इस प्रसाद हेतु आंगन में बैठ सकती है। वहीं महिलाएं चांद की छांव में भोजन ग्रहण न कर घर के अंदर प्रसाद का भोजन ग्रहण करती है। सभी को प्रसाद देने के पश्चात व्रत धारी महिला भी चांद को अर्घ्य दिए जाने वाले जल से ही अपना व्रत खोलते हैं एवं सर्वप्रथम प्रसाद का सेवन करती हैं। फिर भोजन ग्रहण करती है।
चाँद की पूजा हेतु शुभ समय
भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाई जाने वाले इस पर्व में चांद के पूजन का विशेष महत्व होता है। अतः इसमें समय व मुहूर्त अनुमानित तौर पर बताया जा सकता है। हालांकि सामान्यतः चांद के उगने के समय को ही शुभ मुहूर्त माना जाएगा। चूँकि चांद के उगने के पश्चात ही महिलाएं चांद की पूजा आराधना कर अपना व्रत खोलती है। हालांकि अगर ग्रह व नक्षत्रों की कालखंड को देखते हुए शुभ मुहूर्त की बात की जाए तो चंद्रमा के पूजन हेतु उचित मुहूर्त 6 बजकर 53 मिनट से लेकर 7 बजकर 59 मिनट तक का है।
व्रत के पीछे के तथ्य
प्रकृति की महत्वता व पवित्र भाव को समझौते हुए एकजुटता व पारिवारिक एकता का संदेश देने वाले इस चौरचन पर्व को मनाने के पीछे एक विशेष पौराणिक कारण माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार जब भगवान श्री गणेश अपने मूषक पर सवार होकर भूलोक पर यात्रा कर रहे थे। उसी समय किसी कारणवश भगवान श्री गणेश जमीन पर गिर जाते हैं जिसे देखकर चंद्रमा उनके भारी शरीर व शारीरिक आकृति को लेकर उनका मजाक बनाकर उन पर हंसने लगता है। भगवान के श्री गणेश को चंद्रमा किया प्रतिक्रिया बिल्कुल रास ना आई, अतः वे चंद्रमा पर क्रोधित हो गए और उन्होंने चंद्रमा को यह श्राप दिया कि आज से तुम्हें तुम्हारे रूप पर घमंड होना बंद हो जाएगा। अब से तुम्हारी तरफ जो भी अपनी दृष्टि डालेगा, उसे समाज से कलंकित होना पड़ेगा। समाज उनका तिरस्कार करेगा एवं उसके ऊपर बुरे प्रभाव परिलक्षित होने लगेंगे। इससे चंद्रमा अत्यंत ही दुखी हो गए। वे श्री गणेश के समीप रोकर गिड़गिड़ाने लगे एवं विलाप कर प्रार्थना करने लगे। चंद्र देव इस घातक शाप से मुक्ति का मार्ग श्री गणेश से पूछने लगे, तत्पश्चात् भगवान श्रीगणेश को भी चंद्रमा पर दया आ गई।
उन्होंने कहा कि जाओ मैं तुम्हें इस श्राप से मुक्ति हेतु एक मार्ग बता ही देता हूं। फिर श्री गणेश ने चंद्रदेव से कहा कि हर वर्ष के भादो मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को यदि तुम मौसमी फल वह अन्य तथ्यों के साथ मेरी पूजा आराधना करोगे तो तुम्हें तुम्हारे इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी। तत्पश्चात भगवान श्री गणेश ने यह भी कहा कि जो भी जातक इस दिन सभी प्रकार के फल, मेवा, मिष्ठान आदि लेकर इस दिन मेरी अर्थात भगवान श्री गणेश की तथा चंद्र देव की पूजा आराधना करेगा, चंद्रदेव को जो भी भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को अर्घ्य प्रदान करेगा, उन्हें सभी प्रकार के कलंक व पापों से मुक्ति मिलेगी। इसी दिन से मिथिलांचल में चंद्रदेव के पूजन हेतु चतुर्थी तिथि को होने वाले पर्व चौथी चांद या चौरचन की शुरुआत हुई। इस पर्व में महिलाएं ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, धन एवं ब्राह्मण की गृहिणी हेतु 16 सृंगार की वस्तुएँ भी दान स्वरूप देती है।