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भीष्म अष्टमी

Bhishma Ashtami

भीष्म अष्टमी को हिंदू धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण तथा शुभ तिथि माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इसी दिन भीष्म पितामह ने स्वयं अपना शरीर छोड़ा था, अर्थात इसी दिन भीष्म पितामह की मृत्यु हुई थी, इसीलिए इस दिन को भीष्म अष्टमी के तौर पर मनाया जाता है।

जब युद्ध में हारने के पश्चात वे तीरों की शय्या पर लेटे थे, वह दिन उत्तरायण का शुभ दिन था। इसीलिए भीष्म अष्टमी उत्तरायण के समय मनाई जाती है। उत्तरायण अर्थात जब सूर्य उत्तरार्ध से प्रारंभ होता है, ये समय वर्ष का सबसे पवित्र समय होता है।

भीष्म पितामह को शांतनवा, गौरांगा तथा गंगापुत्र भीष्म इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। भीष्म पितामह का मूल नाम देवव्रत बताया गया है जो कि महाभारत काल के एक मुख्य तथा महान व्यक्तित्व में से एक हैं।

भीष्म अष्टमी तिथि एवं मुहूर्त

इस वर्ष भीष्म अष्टमी दिनांक 19 फरवरी 2021, शुक्रवार के दिन मनाई जाएगी।

शुभ मुहूर्त

समय:- सुबह 11 बजकर 27 मिनट से लेकर दोपहर 01 बजकर 43 मिनट तक
अवधि:- 02 घंटे 16 मिनट
अष्टमी तिथि प्रारंभ:- 19 फरवरी, दिन शुक्रवार सुबह 10 बजकर 58 मिनट से
अष्टमी तिथि समाप्ति:- 20 फरवरी, दिन शनिवार दोपहर 01 बजकर 31 मिनट पर।

भीष्म अष्टमी का महत्व

भीष्म अष्टमी का दिन हिन्दू शास्त्रों व रीति-रिवाजों के अनुसार बहुत ही शुभ माना जाता है। इस दिन सभी अच्छे कार्यों को करना बहुत ही शुभ होता है। चाहे पितृ दोष को खत्म करने की बात हो, या निःसंतान दंपत्ति को संतान की चाहत हो, ऐसी सभी इच्छाओं की पूर्ति के लिए आपको भीष्म अष्टमी के दिन अनुष्ठान तथा व्रत करना चाहिए। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगीं तथा इसके साथ ही आप पर कोई विपत्ति नहीं आयेगी।

इस दिन यदि किसी बच्चे/बच्ची का जन्म होता है, तो वह बालक या बालिका आगे चलकर बहुत ही तेजस्वी तथा समझदार साबित होता/होती है। यदि आप सच्चे मन से इस दिन व्रत रखकर पूजा-अर्चना करते हैं, तो आपको भीष्म पितामह द्वारा फलस्वरूप बहुत ही सुख की प्राप्ति होती है और आपका जीवन आनंदमय हो जाता है।

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भीष्म अष्टमी भारत देश के अलग-अलग क्षेत्रों में धूमधाम से मनाया जाने वाला पर्व है। हर क्षेत्र के इस्कॉन मंदिर तथा भगवान विष्णु के मंदिर में इस दिन बहुत ही विशाल व भव्य आयोजन किया जाता है जिसमें बहुत से लोग शामिल होते हैं और समारोह का आनंद लेते हैं। बंगाल के कई क्षेत्रों में भी इस दिन विशेष प्रकार की पूजा की जाती है।

भीष्म अष्टमी की पूजा व व्रत के लाभ

  • भीष्म अष्टमी के दिन जो लोग सच्चे मन से पूजा अर्चना करते हैं, उन्हें सभ्य तथा ईमानदार संतान का वरदान प्राप्त होता है।
  • इस दिन की पूर्व संध्या पर व्रत व तर्पण तथा पूजा और अनुष्ठान आदि करने से भक्तों को अपने सभी पापों व बुरे कर्मों से राहत मिलती है और सुखी जीवन का आशीर्वाद मिलता है।
  • इसके द्वारा व्यक्तियों को पितृ दोष से भी छुटकारा मिलता है।

भीष्म पितामह की शिक्षाएं

भीष्म पितामह जब सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी यात्रा प्रारम्भ करने की प्रतीक्षा कर रहे थे, तभी उन्होंने युधिष्ठिर को कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएं दीं जो निम्नलिखित हैं-

  • स्वयं को जल्द से जल्द क्रोधमुक्त करें तथा लोगों को उनकी गलती पर अधिक दंड देने से बेहतर है कि उन्हें एक मौका ओर दें।
  • अपने किसी भी कार्य को अधूरा न रखें। सबको पूरा करके ही छोड़ें क्योंकि अधूरा कार्य नकरामकता को बढ़ावा देता है।
  • वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति अधिक लगाव से बचें क्योंकि इससे आप अपने मार्ग से भटक सकते हैं।
  • धर्म को सबसे आगे रखें।
  • कठिन परिश्रम करें तथा सभी की रक्षा करें और दयालु बनकर सबकी सेवा करें।

भीष्म अष्टमी की व्रत कथा

देवी गंगा और राजा शांतनु के आठवें पुत्र भीष्म थे जिनका मूल नाम देवव्रत था। यह नाम भीष्म को उनके जन्म के समय दिया गया था। देवव्रत बहुत ही समझदार बालक थे। उन्होंने अपने पिता की खुशी तथा अपने सुखी जीवन की प्राप्ति के लिए हमेशा ब्रह्मचर्य को अपनाया। देवव्रत को प्रारंभ में उनकी माता गंगा ने पोषण व शिक्षा आदि दी। इसके पश्चात उन्हें आगे की शिक्षा व शास्त्र विद्या ग्रहण करने के लिए महर्षि परशुराम के पास भेज दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने गुरु शुक्राचार्य के सानिध्य में रहकर युद्ध की सभी कौशल कलाएं सीखीं जिससे वे अजेय बन गए।

देवव्रत की शिक्षा-दीक्षा पूर्ण करने के पश्चात उनकी माता देवी गंगा उन्हें उनके पिता राजा शांतनु के पास लेकर आयीं तथा भीष्म को हस्तिनापुर का राजकुमार घोषित कर दिया। इसी दौरान देवव्रत के पिता राजा शांतनु को सत्यवती नाम की एक युवती से प्रेम हो गया और उन्होंने सत्यवती से विवाह करने का मन बना लिया। परंतु सत्यवती के पिता ने एक शर्त पर उन दोनों का विवाह कराने का निश्चय किया। सत्यवती के पिता ने यह कहा कि सत्यवती और राजा शांतनु की होने वाली संतानें हस्तिनापुर पर राज व शासन करेंगी, तभी उनका विवाह हो सकता है।  

ऐसी परिस्थिति में देवव्रत ने अपना राज्य अपने पिता की खातिर छोड़ दिया और साथ ही उन्होंने जीवनभर विवाह न करने अर्थात कुंवारे बने रहने का प्रण लिया। उनके इसी प्रण तथा त्याग को देखकर देवव्रत को भीष्म नाम से पूजा जाने लगा और उनकी इस प्रतिज्ञा को भीष्म प्रतिज्ञा का नाम दिया गया।

भीष्म के इस प्रण, त्याग व उनकी ख्याति को देखकर उनके पिता राजा शांतनु उनसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। इच्छामृत्यु, अर्थात भीष्म अपनी इच्छानुसार ही मर सकते हैं, उन्हें स्वयं उनके अतिरिक्त और कोई भी नहीं मार सकता। भीष्म के पूर्ण जीवन में उन्हें भीष्म पितामह के रूप में हर किसी से बहुत ही आदर व सम्मान मिला।

महाभारत के युद्ध के समय वे कौरवों के साथ थे। भीष्म ने कौरवों का पूरा समर्थन किया। भीष्म पितामह ने शिखंडी से किसी भी प्रकार का युद्ध न करने तथा उन पर किसी भी प्रकार का हथियार न उठाने का संकल्प लिया था, इसलिए पांडवों की तरफ से राजा अर्जुन ने शिखंडी के पीछे खड़े होकर भीष्म पितामह पर वार किया जिससे भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर गिर गए।

शास्त्रों के अनुसार ऐसा कहा गया है कि जो भी मनुष्य उत्तरायण के दिन अपना शरीर छोड़ता है, या उस दिन जिस भी व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी कारणवश भीष्म पितामह ने कई दिनों तक उत्तरायण के शुभ दिन के लिए बाणों की शय्या पर प्रतीक्षा की और फिर उसी दिन अपने शरीर को अपनी इच्छानुसार छोड़ दिया, इसीलिए उत्तरायण को तब से भीष्म अष्टमी के रूप में मनाया जाने लगा।