लंकापति रावण ने लक्ष्मण को दी जीवन हेतु ये 3 अमूल्य शिक्षा

Lankapati Ravan Ne Lakshman Ko Di Ye 3 Shiksha

हिंदू धर्म के प्राचीनतम ग्रंथ रामायण में अधर्म पर धर्म की विजय पर प्रभु श्री राम ने सुनहरी पताका फहराई। प्रभु श्री राम ने भूधरा पर पुनः धर्म की स्थापना कर, उन्होंने असुरों के राजा लंकाधिपति रावण दशानन से युद्ध कर, उसके अहंकार व अभिमान को चुर कर, उसके विनाश के साथ धरती से असुरों का अंत कर दिया। महर्षि वाल्मीकि रामायण में लंकापति रावण के गुणों को बिना किसी भेदभाव के साथ समर्थन करते हुए, रावण को चारों वेदों का विश्व विख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं। वे रामायण में हनुमान का रावण के दरबार में प्रवेश के समय बाल्मीकि जी लिखते हैं कि-

अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥

अर्थात् :-  लंका की सभा में प्रवेश करते ही हनुमान लंकापति रावण देख मोहित हो जाते है। अंतर्मन में सोचते हैं कि अगर रावण में अहंकार की अति ना होती तो यह तीनों लोकों का भी स्वामी बन जाता।

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रावण के विनाश का कारण

रावण की छवि उसके अहंकार और अभिमान की अधिकता के कारण, विश्व में विपरीत व बुरी बनी हुई है, क्योंकि मनुष्य के धर्म-कर्म पर अगर एक भी अधर्म कार्य की संख्या जुड़ जाए, तो उस मनुष्य के सभी धर्म कार्य नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार रावण का तप, भक्ति,  योग, शिष्टाचार, ज्ञान व विवेक। यह सभी एक कारवां विमान रूबी चादर से बंध गए थे जिसके कारण शिव का परम भक्त यम और सूर्य तक को अपना प्रताप खेलने के लिए विवश कर देने वाला प्रकांड विद्वान दशानन रावण को प्रभु श्री राम के हाथों अपनी मृत्यु को स्वीकार करनी पड़ी।  

प्रभु श्री राम लंकाधिपति रावण के चरित्र, बल, विद्वता, पराक्रम व तेज प्रताप से भलीभांति अवगत थे। वे यह भी जानते थे कि उसके जीवन का एकमात्र अवगुण अहंकार उसके विनाश का कारण है, वरना इस धरा पर उसके विनाश का कोई कारण नहीं बन सकता।

जब अपनी पत्नी सीता को लंकाधिपति रावण की कैद से मुक्त कराने हेतु, लंका पर प्रभु श्री राम ने सम्पूर्ण जगत के वानर को एकत्र कर चढ़ाई की और असुरों के राजा दशानन के अभिमान व अहंकार का विनाश किया व उनके प्राण  हरकर संपूर्ण राक्षस जाति का सर्वनाश कर दिया।

रावण के द्वारा दी गई लक्ष्मण को शिक्षा   

अपने अहंकार व अभिमान के बाणों से घायल लंकापति रावण जब एक ओर मृत्यु को पुकार रहा था, तब प्रभु श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं कि तुम लंकापति के पास जाकर उनकी प्रबलता का ज्ञान प्राप्त करो। हाँ माना आज वह स्वयं ही अपनी इस पीड़ा का जिम्मदार है, किन्तु वह शास्त्रों और राजनीतिक विद्या में पारंगत है। तुम जाकर उससे विद्या प्राप्त करो।

लक्ष्मण प्रभु श्री राम की आज्ञा लेकर लंकापति के पास जाकर उनके सिर के समीप खड़े होकर कहते हैं कि लंकापति, मैं प्रभु श्री राम का अनुज लक्ष्मण आपसे राजनीतिक शिक्षा का ज्ञान लेने आया हूँ। लक्ष्मण की बात सुनकर रावण ने एक क्षण लक्ष्मण की ओर देखा और आंखें विपरीत दिशा में कर बंद कर लीं। कुछ देर ठहरने के उपरांत लक्ष्मण वहाँ से चले जाते हैं।

प्रभु श्री राम के पास जाकर रावण के अहंकार को प्रमुखता से कहते हैं कि भैया लंकापति ने मेरे आग्रह को सुनकर भी अनसुना कर दिया। उनकी व्याकुलता को समाप्त कर प्रभु श्री राम कहते है कि लक्ष्मण तुम यह बताओ कि किस ओर खड़े होकर तुमने रावण से शिक्षा प्राप्त करने का आग्रह किया था। प्रभु राम के प्रश्न का उत्तर देते हुए लक्ष्मण कहते है कि उनके सिरहाने खड़े होकर मैंने उनसे शिक्षा लेने का आग्रह किया था।

प्रभु राम मुस्कुराते हुए कहते हैं कि लक्ष्मण वो लंकापति हैं, असुर जाति में श्रेष्ठ, और वैसे भी हम जिससे भी शिक्षा प्राप्त करते हैं, उसके चरणों के समक्ष खड़े होकर हमें आग्रह करना चाहिए।

इस बार पुनः लक्ष्मण भैया से आज्ञा लेकर लंकापति के चरणों को स्पर्श कर उनसे पुनः शिक्षा का आग्रह करते हैं। इस बार लंकापति ने मुस्कुराकर लक्ष्मण का अभिनंदन किया और अपने जीवन के संघर्ष में से कुछ जीवन रूपी मूल्यों कि शिक्षा प्रदान की।

प्रथम शिक्षा

जिस प्रकार मैंने तीनों लोकों के स्वामी प्रभु श्री राम को पहचानने में देरी कर दी, जिस कारण मुझे इस पीड़ा को सहन करना पड़ रहा है, अगर मैंने ईश्वर को पहले ही अनुभव कर लिया होता तो आज इस स्थिति में न होता।

कह सकते हैं कि शुभ व अच्छे कार्यों को करने में हमें तनिक भी विलम्भ नहीं करना चाहिए, और अशुभ व बुरे कार्यों को करने में हमें 1000 बार सोच कर उसके परिणामस्वरूप कार्य करना चाहिए।

दूसरी शिक्षा

जिस प्रकार मैंने सम्पूर्ण वानर जाति, मानव जाति आदि को एक चीटी समान तुच्छ समझा, उस सेना ने मेरी असुर जाति का सर्वनाश कर दिया और मुझे मृत्यु के निकट पहुंचा दिया।

कह सकते हैं कि अपने विपक्षी शत्रु को कभी भी अपने से दुर्बल नहीं समझना चाहिए। उनको तुच्छ समझना ही आपके जीवन का अंत निकट ला देगा।  

तीसरी शिक्षा

मेरे भाई विभीषण को मेरी मृत्यु के गूढ़ रहस्य का ज्ञान था कि मेरा विनाश इस धरा पर सिर्फ मानव या वानर जाति के हांथों ही संभव है जिसका लाभ प्रभु श्री राम ने लंका के युद्ध में उठाया।

कह सकते हैं कि अपने जीवन के रहस्य अपने निकटतम को भी नहीं बताना चाहिए क्योंकि वो आज हमारे साथ है तो हमारा शुभचिंतक है, किन्तु कल किसी और के साथ होगा तो वह हमारा शत्रु और किसी और का शुभचिंतक बन जाएगा जिसका परिणाम हमारे लिए भविष्य में अशुभ होगा।

अंत समय में रावण ने अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर लक्ष्मण को अपने जीवन की विद्वता से अनेकों शिक्षा प्रदान की व लक्ष्मण ने आज तक जो नहीं सीखा था, उसने उसे लंकाधिपति रावण के माध्यम से सीख लिया।